Wednesday, October 4, 2023
spot_imgspot_imgspot_imgspot_img
HomeFilmiवह बदनाम गली,बनारस की दालमंडी का इतिहास बेहद समृद्ध है।

वह बदनाम गली,बनारस की दालमंडी का इतिहास बेहद समृद्ध है।

इसमें कला का अमृत घुला हुआ है इसकी तुलना दिल्ली के जीबी रोड, मुंबई के कमाठीपुरा या कोलकाता के सोनागाछी से नहीं हो सकती यहां कलाओं का ऐश्वर्य था, सौंदर्य की मिश्री थी साहित्य की गंगोत्री थी।
दालमंडी में चंपाबाई की सुर-ताल और अदब की वो महफिल जहां जाने को बेचैन था पूरा बनारस चंपाबाई की एक झलक पाने को पूरा बनारस बेचैन था. कुछ ऐसे भी थे जो जान पर खेल जाते थे।चंपा बाई। नाम सुनते ही जैसे मन के किसी कोने में अचानक चंपा के फूल खिलने का अहसास हो उठे।

चौंकिए मत इस कहानी का सिरा आपकी सोच के बाहर का है। चंपा बाई, बनारस की दालमण्डी की मशहूर तवायफ थीं. बला की खूबसूरत, नामवर नर्तकी. संगीत के जानकार उसके गाने पर जान देते थे।तहज़ीब, शराफ़त, पेश आने के तरीक़े, हाज़िर जवाबी, सब में बेजोड़। लोग उनकी महफ़िल में अदब और आदाब सीखने आते थे। महफ़िल में उनके कदम पड़ते ही दिल मचल उठते थे और होशो-हवास वक्त के किसी ‘इंटरवल’ में गुम हो जाते थे।
ऐसी थी उनकी शोहरत।

आचार्य चतुरसेन के शब्दों में “उसकी देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के अखंड टुकड़े से यत्नपूर्वक खोदकर गढ़ी थी। जिससे तेज आभा, प्रकाश, माधुर्य, कोमलता और सौरभ का झरना झर रहा था। इतना रूप, सौष्ठव और अपूर्वता कभी किसी ने एक जगह इकट्ठा नहीं देखा होगा।
कोठे पर वह रूप, यौवन, मद, सौरभ बिखेरती चलती थी.” इस चंपाबाई की एक झलक पाने को बनारस का श्रेष्ठिवर्ग यत्न करता था।
कुछ ऐसे भी थे जो जान पर खेल जाते थे।
वक्त ने दालमण्डी को बदनामकर दिया
सुरों की गली, अदब की महफ़िल, गुणवन्तो की इबादतगाह, हुनर की मण्डी और बनारसी रईसी परम्परा को दालमण्डी कहते हैं।
महाकवि जयशंकर प्रसाद और भारतेन्दु की यह आश्रयस्थली थी. यहां न कोई छोटा, न बड़ा, सब बराबर।
यहां आने के लिए बस संगीत में रुचि, तहज़ीब के जानकार और अंटी में माल होना चाहिए।
बनारसी संगीत की विशाल परम्परा है और दालमण्डी उस परम्परा का अबूझ सा स्रोत।
समझने वाली बात यह भी है कि दालमण्डी वेश्यालय नहीं था।यहां सुरों की महफ़िल सजती थी।और संगीत की दुनिया रौशन होती थी।
वक्त ने दालमण्डी को इतना बदनाम कर दिया है कि दालमण्डी की शोहरत दुनिया में तो हुई, पर बनारस के राजस्व दस्तावेज़ों में इस मुहल्ले का नाम तक दर्ज नहीं है।
कभी इसी मुहल्ले में पारसी थियेटरकार आगा हश्र काश्मीरी रहा करते थे। भारत रत्न बिस्मिल्ला खां का घर इसी मुहल्ले का सराय हडहा था। दरअसल चौक से नई सड़क के बीच जिस गली को लोग दालमंडी के नाम से जानते है, उस गली का नाम हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग है। इस गली के एक ओर चहमामा है तो दूसरी ओर रेशम कटरा मुहल्ला।

बृजबाला की बंदिश को शहनाई में उतार अमर हो गए बिस्मिल्लाह

शहनाई नवाज़ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते थे कि अगर कोठे नहीं होते, तवायफ़ें नहीं होतीं तो आज बिस्मिल्लाह बिस्मिल्लाह नहीं होता।
उनका मानना था कि जितनी पक्की गायकी कोठे पर थी, वह कहीं और नहीं मिलती थी. बृजबाला मुज़फ़्फ़रपुर की तवायफ थी।
खां साहब डुमराव के रहने वाले थे। एक महफ़िल में दोनो की मुलाक़ात हुई।
और इस तवायफ ने बिस्मिल्लाह को बिस्मिल्लाह बना दिया।
‘गूंज उठी शहनाई’ में भरत व्यास का वो गीत ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ बृजवाला की ही धुन थी।

खां साहब इससे अमर हो गए।
खां साहब कहते थे “मैं उनके साथ में बहुत रियाज करता था।
उसकी बंदिश को मैंने शहनाई में उतारा और मेरी वह फूंक अमर हो गई।
” ये बात दीगर है कि खां साहब भारत रत्न बने और बृजबाला गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गईं।

तवायफों का इतिहास

सांस्कृतिक इतिहास की ये रवायतें ढाई से तीन हज़ार साल पुरानी हैं।
अवध, बनारस और मुज़फ़्फ़रपुर का चतुर्भुज स्थान इस इतिहास के जिन्दा केन्द्र रहे हैं।
बौद्ध काल में भी गणिकाओं का उल्लेख मिलता है।
आम्रपाली की कथा तो आप जानते ही होंगे। बुद्ध ने इसकी प्रतिभा देख इसे अपने विहार में प्रवेश दिया था। तब तक महिलाएं बौद्ध विहारों में प्रतिबंधित थीं।
पारम्परिक मुजरा, गीत, ग़ज़ल, बंदिशों के बोलों को भावपूर्ण नृत्य शैली में अंजाम देने वाली नर्तकी को तवायफ कहते हैं।
यह नर्तकियां ‘पेशवाज’ पहन कर नृत्य करती थीं, जिसमें शरीर के ऊपरी भाग में घेरेदार अंगरखा और पैरों में चूड़ीदार पाजामा पहना जाता है।

तवायफें अमूमन जिस्मफरोशी नहीं करती थीं।
आमतौर पर किसी राजा, नवाब, रईस या गोरे साहब की रक्षिता के तौर पर ये तवायफें अपना जीवन गुज़ारती थीं।हर शाम कोठे पर महफ़िल सजाना और उपशास्त्रीय गायन ही इनका काम था।
अवध में इन्हे पतुरिया भी कहा जाता था। वैसे काशी की तवायफ परम्परा काफ़ी समृद्ध थी तभी तो भारतेन्दु ने ‘प्रेमयोगिनी’ में लिखा है “आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी. आधी कासी रंडी मुंडी रांड़ खानगी खासी.. देखी तुम्हरी काशी लोगों, देखी तुम्हरी काशी”

पर तवायफ और गणिका में बड़ा झीना अन्तर है. ‘तवायफ’ अरबी ‘तायफा’ का बहुवचन है जिसका अर्थ है व्यक्तियों का दल, विशेषत: गाने बजाने वालों का दल. इस मंडली में शामिल नाचने वाली को ही ‘तवायफ’ कहा गया है। मध्य युग में रईस और जमींदारों के घरों में विवाह या अन्य- उत्सवों में मुजरा होता था। मुजरे में कई तवायफ अपनी साथियों के साथ शामिल होती थीं।तवायफों की परिभाषा शब्दकोष में भी मिलती है. मुजरे में नाचने वाली नर्तकियों को तवायफ कहा जाता है।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दिनों में अंग्रेजों ने गड़बड़ की। सभी नाचने वालियों को एक ही श्रेणी में रख इन्हें ‘नॉच गर्ल’ कहा। इसी के चलते समझ में यह अंतर मिटने लगा।अंग्रेजी चश्मे से लिखे गए इन अभिलेखों, क्रॉनिकल, गज़ेटियर में इन सबको नॉच गर्ल करार दिया गया. इस विषय पर सबसे प्रामाणिक लेखन अंग्रेज़ लेखक प्राण नेविल और फ्रेंचेस्का ऑरसीनी का है। जबकि हिन्दी में प्रामाणिक लेखन अमृत लाल नागर की ‘ये कोठेवालियां’ है।
(अनूप नारायण सिंह,लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य है)

RELATED ARTICLES
spot_imgspot_img
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments